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नज़्म
कभी यूँही राह चलते इक रेशमी दुपट्टे की सरसराहट
सियाह-रातों को हौले हौले क़रीब आती हुई सी आहट
मुनीर नियाज़ी
नज़्म
घड़ी की टिक-टिक बोल रही है रात के शायद एक बजे हैं
बटला हाउस की एक गली में मोटे कुत्ते भौंक रहे हैं
आसिम बद्र
नज़्म
कोई इक दिल-नशीं सा ख़्वाब बन कर ही समा जाओ
कभी तो हौले हौले से मिरी बे-रब्त साँसों में