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नज़्म
ये महव-ए-ख़्वाब हैं रंगीन मछलियाँ तह-ए-आब
कि हौज़-ए-सेहन में अब इन की चश्मकें भी नहीं
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
हैं खिले कियारियों में नर्गिस-ओ-नसरीन-ओ-समन
हौज़ फ़व्वारे हैं बंगलों में भी पर्दे चलवन
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
वो रात वो हलब की कारवाँ सिरा का हौज़
जिस को मैं ने जिस्म-ओ-जान की ख़ुशबूएँ कशीद कर के
इशरत आफ़रीं
नज़्म
हौज़-ओ-फ़व्वारों को दे कर आबरू फिर लुत्फ़ से
क्या मोअत्तर फ़र्श सब्ज़े का बिछाती है बहार
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
जिन में था इक हौज़ तेरा और उस में फूल बाग़
जो उतारे हैं बदन से बे-बदन, क्या चूम लूँ!