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नज़्म
फ़र्दा महज़ फ़ुसूँ का पर्दा, हम तो आज के बंदे हैं
हिज्र ओ वस्ल, वफ़ा और धोका सब कुछ आज पे रक्खा है
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
मैं न समझा तिरी ख़ामोश नज़र का मफ़्हूम
आँखों आँखों में वो इक़रार-ए-वफ़ा सुन न सका