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नज़्म
साज़-ए-दौलत को अता करती है नग़्मे जिस की आह
माँगता है भीक ताबानी की जिस से रू-ए-शाह
जोश मलीहाबादी
नज़्म
उस की गर्दन के बहुत पास से गुज़रे हैं कई तीर मिरे
वो भी अब उतना ही हुश्यार है जितना मैं हूँ
गुलज़ार
नज़्म
नूर से कुछ इस तरह है चश्म तेरी तर-ब-तर
चाँदनी का अक्स जों उतरा हो सत्ह-ए-आब पर