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नज़्म
वो जिन में मुल्क-ए-बर्क़-ओ-बाद तक तस्ख़ीर होता है
जहाँ इक शब में सोने का महल तामीर होता है
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
दो शम्ओं' की लौ पेचाँ जैसे इक शो'ला-ए-नौ बन जाने की
दो धारें जैसे मदिरा की भरती हुइ किसी पैमाने की
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
सो फ़लक ने यूँ किया देहली को तो पामाल-ए-जौर
और किया वक़्फ़-ए-जफ़ा हर-बर्ग-ओ-बार-ए-लखनऊ
हकीम आग़ा जान ऐश
नज़्म
ख़ैर अब उस की बात को छोड़ो दीवाना फिर दीवाना
जाते जाते हम लोगों का एक संदेसा ले जाना
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
कैसे कैसे अक़्ल को दे कर दिलासे जान-ए-जाँ
रूह को तस्कीन दी है दिल को समझाया भी है