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नज़्म
वो एक तड़प वो एक लगन कुछ खोने की कुछ पाने की
वो एक तलब दो रूहों के इक क़ालिब में ढल जाने की
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
मुझे इतना बता दे जान-ए-मन मुझ से ख़फ़ा क्यों है
भुला कर क़ौल अपने आज तू मुझ से जुदा क्यों है