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नज़्म
अब भी तकती हैं मिरी राह वो काफ़िर आँखें
अब भी दुज़्दीदा नज़र जानिब-ए-दर है कि नहीं
जोश मलीहाबादी
नज़्म
ग़रज़ तसव्वुर-ए-शाम-ओ-सहर में जीते हैं
गिरफ़्त-ए-साया-ए-दीवार-ओ-दर में जीते हैं