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नज़्म
जबकि जारी हो ज़बानों पर ये कलमा सुब्ह ओ शाम
नग़्मा-हा-ए-साज़ से बढ़ कर है जो मोजज़ निज़ाम
सफ़ीर काकोरवी
नज़्म
अहमद हमेश
नज़्म
इक हक़ीक़त मुझ पे रौशन है जो करता हूँ बयाँ
जबकि मैं ऐ दोस्तो मर्द-ए-जहाँ-दीदा नहीं
अख़तर बस्तवी
नज़्म
मैं इंतिहा-पसंद हूँ मोहब्बत में जबकि तू शायद
है रखता एक तवाज़ुन की हद मोहब्बत में