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नज़्म
ये रुपहली छाँव ये आकाश पर तारों का जाल
जैसे सूफ़ी का तसव्वुर जैसे आशिक़ का ख़याल
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
ये किस तरह याद आ रही हो ये ख़्वाब कैसा दिखा रही हो
कि जैसे सच-मुच निगाह के सामने खड़ी मुस्कुरा रही हो
कैफ़ी आज़मी
नज़्म
जहाँ-ज़ाद नौ साल का दौर यूँ मुझ पे गुज़रा
कि जैसे किसी शहर-ए-मदफ़ून पर वक़्त गुज़रे