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नज़्म
जो और किसी को नाहक़ में कोई झूटी बात लगाता है
और कोई ग़रीब और बेचारा हक़ ना-हक़ में लुट जाता है
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
एक सुब्ह जब आँख खुली खिड़की से झाँका रस्ते को
भीड़ मची थी झुँझलाती सी हर कोई जल्दी में चलता