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नज़्म
ये कैसी धूप है जो जिस्म की रा'नाई झुलसाए
ये कैसी छाँव है जो सर्दियों की बर्फ़ बन जाए
तनवीर अंजुम
नज़्म
हवा में तैरता ख़्वाबों में बादल की तरह उड़ता
परिंदों की तरह शाख़ों में छुप कर झूलता मुड़ता
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
धूप के झुलसे हुए रुख़ पर मशक़्क़त के निशाँ
खेत से फेरे हुए मुँह घर की जानिब है रवाँ
जोश मलीहाबादी
नज़्म
'अहिल्याबाई' 'दमन' 'पदमिनी' ओ 'रज़िया' ने
यहीं के पेड़ों की शाख़ों में डाले थे झूले