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नज़्म
यूँ ज़ात के सुनसान सहराओं में अफ़्सुर्दा फिरे
जैसे जीते जागते लोगों को देखा ही न हो
साक़ी फ़ारुक़ी
नज़्म
मैं उस दौर का इंसाँ हूँ जिस में सारे इंसानों ने
अपने जीते-जागते अज़्म अम्न-ओ-सुकूँ की क़ुव्वत से