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नज़्म
जब तक जियो तुम इल्म-ओ-दानिश से रहो महरूम याँ
आई हो जैसी बे-ख़बर वैसी ही जाओ बे-ख़बर
अल्ताफ़ हुसैन हाली
नज़्म
अपनी हिम्मत है कि हम फिर भी जिए जाते हैं
ज़िंदगी क्या किसी मुफ़लिस की क़बा है जिस में
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
इन दमकते हुए शहरों की फ़रावाँ मख़्लूक़
क्यूँ फ़क़त मरने की हसरत में जिया करती है