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नज़्म
इधर कुछ फ़ासले पर चंद घर थे काश्त-कारों के
जहाँ अब कार-ख़ाने बन गए सरमाया-दारों के
हफ़ीज़ जालंधरी
नज़्म
उसे ब्याह के साथ ब्याहा गया
कि जो कष्ट उठाती धूप में बैठी साए से बातें करती थी