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नज़्म
निगाह को थी मगर मीर-ए-कारवाँ की तलाश
नज़र जो उट्ठी तो देखा कि एक मर्द-ए-फ़क़ीर
सय्यदा शान-ए-मेराज
नज़्म
''टेढ़ा लगा है क़त क़लम-ए-सरनविश्त को''
महँगाई में चला है ये बकरा बहिश्त को
सय्यद मोहम्मद जाफ़री
नज़्म
अली-मोहसिन के मामूँ लुट के अम्बाला से जब लाहौर आए थे
कलाम-ए-पाक अलम और सज्दा-गाहें साथ लाए थे
हारिस ख़लीक़
नज़्म
निशान-ए-'मीर'-ओ-'ग़ालिब', 'दाग़' और 'साइल' अभी तक हैं
जो शमएँ बच गई हैं रौनक़-ए-महफ़िल अभी तक हैं