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नज़्म
आँखों में कम-सिनी के वो सब ख़्वाब जाग उठे
जिन में निगाह ओ दिल कभी मजबूर ही न थे
हिमायत अली शाएर
नज़्म
वो बा-ईं कम-सिनी क्या ये न दिल में सोचता होगा
कि बाजी ने हमारी अपने ख़त में क्या लिखा होगा
अख़्तर शीरानी
नज़्म
हुस्न-ए-बे-मिस्ल को जिस के न अजल है न ज़वाल
कम-सिनी पर मिरी माइल है तबीअ'त तेरी
ग़ुलाम भीक नैरंग
नज़्म
तुम्हारी कम-सिनी खेली है जिस की गोद में बरसों
नुक़ूश-ए-पा से अब तक हर गली की माँग रौशन है
वसीम बरेलवी
नज़्म
कि जिन के सर पर फिरा जो हज़रत का दस्त-ए-शफ़क़त
तो कम-सिनी के लहू से रीश-ए-सपेद रंगीन हो गई है