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नज़्म
उँगलियाँ ख़ून से तर दिल-ए-कम-ज़र्फ़ को है वाहम-ए-अर्ज़-ए-हुनर
दिन की हर बात हुई बे-तौक़ीर
उबैदुल्लाह अलीम
नज़्म
नाचती थीं बे-हया कम-ज़र्फ़ नंगी डाइनें
चीख़ बद-रूहें सुनें क्या तय किया चुपके रहें
सैय्यद सफ़दर
नज़्म
कम-ज़र्फ़ हैं देते हैं तवाइफ़ के जो ता'ने
ऐ ज़ोहरा-जबीं अस्ल में मज़दूर है तू भी
अबुल मुजाहिद ज़ाहिद
नज़्म
कम-ज़र्फ़ कमीने लोगों ने हर जानिब डेरे डाले हैं
बाहर से तो ये सब अच्छे हैं लेकिन अंदर से काले हैं
अमीर चंद बहार
नज़्म
मैं जो बे-रोज़ा हूँ ये भी ताजिरों का ज़र्फ़ है
सौ रूपे उजरत है मेरी सौ रूपे का बर्फ़ है
खालिद इरफ़ान
नज़्म
मैं ने माना शे'र मेरे कुछ नहीं फिर भी ज़रीफ़'
कुछ न कुछ महफ़िल का इन से रंग तो जम जाए है
ज़रीफ़ जबलपूरी
नज़्म
तो मय-कशी को हराम कहने से पहले देखो
कि पीने वाले का ज़र्फ़ क्या है हैं किस के हाथों में जाम-ओ-मीना
तारिक़ क़मर
नज़्म
रिश्तों के ताने-बाने तोड़ कर
ज़ईफ़-ओ-नज़ार माँ बाप की मुंतज़िर आँखों को पीछे छोड़ के
परवेज़ शहरयार
नज़्म
तुझ को अपनाने की हिम्मत है न खो देने का ज़र्फ़
कभी हँसते कभी रोते हुए सो जाता हूँ मैं
हिमायत अली शाएर
नज़्म
ज़र्फ़-ए-नैसाँ चाहती है क़ुल्ज़ुम-आशामी तिरी
बर्ग-ए-गुल की तरह शबनम के लिए तरसा न कर