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नज़्म
ससुराल में हो शादी तो ख़र्चा हो कम जनाब
मैके में है तो ख़र्च ये करती हैं बे-हिसाब
नश्तर अमरोहवी
नज़्म
ख़र्च का टोटल दिलों में चुटकियाँ लेता हुआ
फ़िक्र-ए-ज़ाती में ख़याल-ए-क़ौम ग़ाएब फ़िल-मज़ार
अकबर इलाहाबादी
नज़्म
जब तलक ज़िंदा रहे पैसे न थे करने को ख़र्च
मर गए तो हो रही है मिर्ज़ा-'ग़ालिब' पर रिसर्च
नश्तर अमरोहवी
नज़्म
रात दिन सर पर मुसल्लत लंच असराने डिनर
और हुकूमत ख़र्च अगर दे दे तो हज का भी सफ़र
सय्यद मोहम्मद जाफ़री
नज़्म
अपने आप से गुत्थम-गुत्था होने में ही सब जंगों की लज़्ज़त है
लज़्ज़त, जिस का शायद कुछ भी ख़र्च नहीं है
सरमद सहबाई
नज़्म
दिया है रब ने तो बे-शक तुम उस को ख़र्च करो
मगर ब-क़द्र-ए-ज़रूरत हो बे-हिसाब न हो
अब्दुल अहद साज़
नज़्म
दिल तेरे उस दोस्त का नाहक़ वक़्फ़-ए-सहर-ए-लिसानी था
मेरी समझ में अब आया वो जम-ओ-ख़र्च ज़बानी था