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नज़्म
अहल-ए-क़ुव्वत दाम-ए-हक़ में तो कभी आते नहीं
''बैंकी'' अख़्लाक़ को ख़तरे में भी लाते नहीं
जोश मलीहाबादी
नज़्म
तुम हो ग़ैरत के अमीं तुम हो शराफ़त के अमीं
और ये ख़तरे में हैं एहसास तुम्हें है कि नहीं
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
पहले तो ग़ुर्राई बिल्ली फिर समझी नादान
लालच का अंजाम यही है ख़तरे में है जान
मुर्तजा साहिल तस्लीमी
नज़्म
अब जब तक भी मैं ज़िंदा हूँ हर दुख हर सदमा झेलूँगा
मैं तूफ़ानों से उलझूँगा मैं हर ख़तरे से खेलूँगा