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नज़्म
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
शहपर-ए-बुलबुल पे खींची जाए तस्वीर-ए-शिग़ाल!
मोतियों पर सब्त हो तूफ़ान की मोहर-ए-जलाल
जोश मलीहाबादी
नज़्म
मैं ने खींची है ये मय मैं ने ही ढाले हैं ये जाम
पर अज़ल से जो मैं प्यासा था तो प्यासा ही रहा
राही मासूम रज़ा
नज़्म
दिल-ए-माशूक़ की हर बात समझ जाती है
तू खिंची आती है यूँ हौले से मेरी जानिब
विनोद कुमार त्रिपाठी बशर
नज़्म
तो रात बनाता है मैं चराग़ जलाता आया हूँ
हमारे दरमियान खिंची दीवार में कोई खिड़की न रक्खी थी तू ने