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नज़्म
एक सुकूँ का पल मिलते ही सोच की हंडिया खोलूँगी और इक इक कर के
धीमी आँच पे सारे मिसरे सेंकुंगी
शुमाइला बहज़ाद
नज़्म
हो के अब मोहतात मैं खेलूँगा अगले मैच में
हर दफ़ा ये कह के अपने दिल को समझता हूँ मैं
इनायत अली ख़ाँ
नज़्म
अब न एहसास-ए-तक़द्दुस न रिवायत की फ़िक्र
अब उजालों में न खाऊँगी मैं ज़ुल्मत के फ़रेब
अख़्तर पयामी
नज़्म
हम चाँद नगर पर जाते ही खोलेंगे एक नया मकतब
ता'लीम न होगी जिस में कभी सब आज़ादी से घूमेंगे