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नज़्म
वही ख़्वाजगी वही ख़ुसरवी वही रंग-ओ-नस्ल की बरतरी
यही है तमद्दुन-ए-मग़रिबी कोई मुझ से सुन ले खरी खरी
अमजद नजमी
नज़्म
सरीर काबिरी
नज़्म
साँस क्या उखड़ी कि हक़ के नाम पर मरने लगे
नौ-ए-इंसाँ की हवा-ख़्वाही का दम भरने लगे
जोश मलीहाबादी
नज़्म
बहू कहे जब देखो जब ही ख़्वाही नख़्वाही बात बढ़ाना
सास पुकारे ऐ मिरे अल्लाह तौबा भली अब तू ही बचाना
मीराजी
नज़्म
आह नादाँ क्यूँ न सोचा मेरी उल्फ़त का मआल
क्यूँ मिरी ग़म-ख़्वार्गी का तुझ को आया था ख़याल
ज़े ख़े शीन
नज़्म
हम-जमाअत दोस्त कहते थे तुझे अपना वा'दा
तुझ को उन के ख़ानगी झगड़ों की भी थी जुस्तुजू