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नज़्म
ख़्वाब-ए-गिराँ से ग़ुंचों की आँखें न खुल सकीं
गो शाख़-ए-गुल से नग़्मा बराबर उठा किया
आल-ए-अहमद सुरूर
नज़्म
सदा तन्हाइयों के देस में फिरती हो आवारा
ये इक बीम-ए-शिकस्त-ए-ख़्वाब ये छू लूँ तो क्या होगा