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नज़्म
करूँगा फ़तह कोई शाम तो मैं उतरूँगा उलझती साँस के कीकर से और
ख़्वाबों से रफ़्त-ओ-बूद के उस पार
ख़लील मामून
नज़्म
नहर किनारे उजड़े उजड़े पेड़ खड़े थे कीकर के
जिन पर धूप हँसा करती है वैसे उन के साए थे
अली अकबर नातिक़
नज़्म
जिस में एक दूसरे से हम-किनार तैरते रहे
मुहीत जिस तरह हो दाएरे के गिर्द हल्क़ा-ज़न
नून मीम राशिद
नज़्म
कहते हैं अहल-ए-क़िमार आप में गर्म इख़्तिलात
हम तो डब में सौ रुपे रखते हैं तुम रखते हो कै