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नज़्म
मुझ को तेरे लहन-ए-दाऊदी से कब इंकार है
बज़्म-ए-हस्ती का मगर क्या रंग है ये भी तो देख
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
और उन का लहन-ए-शीरीं गूँजता है कोहसारों में!
मिरी 'सलमा'! मुझे ले चल तू उन रंगीं बहारों में!
अख़्तर शीरानी
नज़्म
जब ज़रूरत ही रही बाक़ी न लहन-ओ-रंग की
कोयलें कूकीं तो क्या सावन की रुत आई तो क्या