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नज़्म
पर लिक्खे तो क्या लिक्खे? और सोचे तो क्या सोचे?
कुछ फ़िक्र भी मुबहम है कुछ हाथ लरज़ता है
ज़ेहरा निगाह
नज़्म
अपने ही लिक्खे हुए चंद ख़तों की ख़ातिर
मुझ से ख़ाइफ़ ही नहीं ख़ुद से भी बेज़ार हो तुम
प्रेम वारबर्टनी
नज़्म
साल-हा-साल चीज़ें बदलती गईं
वक़्त ने दर्द के जो भी लिरिक्स् लिखे उन को गाना पड़ा