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नज़्म
तू ने देखी है वो पेशानी वो रुख़्सार वो होंट
ज़िंदगी जिन के तसव्वुर में लुटा दी हम ने
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
बूँद भर दे न सका कोई मोहब्बत की शराब
यूँ तो मय-ख़ाने का मय-ख़ाना लुटा देखा है
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
नज़्म
हाँ कज करो कुलाह कि सब कुछ लुटा के हम
अब बे-नियाज़-ए-गर्दिश-ए-दौराँ हुए तो हैं
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
जो और किसी को नाहक़ में कोई झूटी बात लगाता है
और कोई ग़रीब और बेचारा हक़ ना-हक़ में लुट जाता है