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नज़्म
ये क्या मुमकिन नहीं तू आ के ख़ुद अब इस का दरमाँ कर
फ़ज़ा-ए-दहर में कुछ बरहमी महसूस होती है
कँवल एम ए
नज़्म
वो इल्म में अफ़लातून सुने वो शेर में तुलसीदास हुए
वो तीस बरस के होते हैं वो बी-ए एम-ए पास हुए
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
बे-तेरे क्या वहशत हम को, तुझ बिन कैसा सब्र ओ सुकूँ
तू ही अपना शहर है जानी तू ही अपना सहरा है
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
ख़ुदी को गर मिटाएगा ख़ुदा भी मिल ही जाएगा
उठाया चाहिए दिल से हिजाब-ए-मा-ओ-तू पहले
नारायण दास पूरी
नज़्म
इक जहाँ जिस में न हो कुछ मा-ओ-तू का इम्तियाज़
इक जहाँ आज़ाद-ए-क़ैद-ए-ईन-ओ-आँ मेरे लिए
जलील क़िदवई
नज़्म
कितनी ऊँची उठा दी है हिज्र की संगीन दीवार तू ने
लम्बी बहुत लम्बी मशरिक़ैन से मग़रबीन तक