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नज़्म
अब तो नहीं है कोई दुनिया में हम-सर उस के
अज़-माह-ताब-ए-माही बंदे हैं बे-ज़र उस के
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
उम्र बढ़ती है तो जज़्बों में कमी होती है
मुर्ग़-ओ-माही के मज़े कैसे कबाबों में मिलें
ग़ौस ख़ाह मख़ाह हैदराबादी
नज़्म
और सब की आँखें ठहर गईं और सब का चेहरा फैल गया
माही-गीरों ने उस दिन बे-अंदाज़ा जाल बुने
मोहम्मद अनवर ख़ालिद
नज़्म
वो हुस्न के दरिया की थी इक माही-ए-बे-ताब
छींटों से वफ़ा के जिसे ख़ालिक़ ने निखारा