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नज़्म
यूँही बस यूँही 'ज़ेनू' ने यकायक ख़ुद-कुशी कर ली
अजब हिस्स-ए-ज़राफ़त के थे मालिक ये रवाक़ी भी
जौन एलिया
नज़्म
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
सोच रहा हूँ जंग से पहले, झुलसी सी इस बस्ती में
कैसा कैसा घर का मालिक, कैसा कैसा मेहमाँ था
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
ये जो रिश्ता-दार था हम सब का लेकिन दूर का
मिल के मालिक ने इसे रुत्बा दिया मंसूर का
सय्यद मोहम्मद जाफ़री
नज़्म
बहती हुई बिजली की लहरें, सिमटे हुए गंगा के धारे
धरती के मुक़द्दर के मालिक, मेहनत के उफ़ुक़ के सय्यारे
अली सरदार जाफ़री
नज़्म
मैं सिवाए कुफ़्र के हर हुक्म उस का मान लूँ
ऐ ख़ुदा-ए-दो-जहाँ ऐ मालिक-ए-रोज़-ए-जज़ा