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नज़्म
जिस के छू जाते ही मिस्ल-ए-नाज़नीन-ए-मह-जबीं
करवटों पर करवटें लेती है लैला-ए-ज़मीं
जोश मलीहाबादी
नज़्म
अब तो मस करती है जब ऐसे एज़ार-ए-गुल से
ऐसी आवाज़ से गूँज उठती है गुलशन की फ़ज़ा
अहमद नदीम क़ासमी
नज़्म
देख सय्याह उसे रात के सन्नाटे में
मुँह से अपने मह-ए-कामिल ने जब उल्टी हो नक़ाब
चकबस्त बृज नारायण
नज़्म
कहीं किसी का मास न हड्डी कहीं किसी का रूप न छाया
कुछ कत्बों पर धुँदले धुँदले नाम खुदे हैं मैं जीवन-भर