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नज़्म
हुई फिर इमतिहान-ए-इशक़ की तदबीर बिस्मिल्लाह
हर इक जानिब मचा कुहराम-ए-दार-ओ-गीर बिस्मिल्लाह
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
उमँड आते थे जब अश्क-ए-मोहब्बत उस की पलकों तक
टपकती थी दर-ओ-दीवार से शोख़ी तबस्सुम की
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
बख़्शा था जिस ने पहले-पहल दिल को दर्द-ए-इश्क़
फिर उस के दर पे सज्दा-ए-शुकराना चाहिए
अख़्तर शीरानी
नज़्म
दा'वा-ए-उल्फ़त जता कर मुफ़्त में रुस्वा न हो
दार पर चढ़ने से पहले राज़-ए-इश्क़ अफ़्शा न कर
ज़फ़र अली ख़ाँ
नज़्म
थे बहुत बेदर्द लम्हे ख़त्म-ए-दर्द-ए-इश्क़ के
थीं बहुत बे-मेहर सुब्हें मेहरबाँ रातों के बा'द
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
लीजिए आए हैं मजनूँ मुझ को देने दर्स-ए-इश्क़
आप की सूरत तो देखो हत तिरे उस्ताद की
इस्मतुल्लाह इस्मत बेग
नज़्म
पढ़ती रहती हूँ मैं पहरों अंत कुछ माता नहीं
दर्द-ओ-ग़म की दास्ताँ भी ख़त्म होती है कहीं
अमीर औरंगाबादी
नज़्म
बहार-ए-हुस्न जवाँ-मर्ग सूरत-ए-गुल-ए-तर
मिसाल-ए-ख़ार मगर उम्र-ए-दर्द-ए-इश्क़ दराज़
अली सरदार जाफ़री
नज़्म
गुलशन-ए-याद में गर आज दम-ए-बाद-ए-सबा
फिर से चाहे कि गुल-अफ़शाँ हो तो हो जाने दो