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नज़्म
अली सरदार जाफ़री
नज़्म
रग-ए-जहाँ में थिरक रही है शराब बन कर तिरी जवानी
दिमाग़-ए-परवर-दिगार में जो अज़ल के दिन से मचल रहा था
मजीद अमजद
नज़्म
मचल रहा है रग-ए-ज़िंदगी में ख़ून-ए-बहार
उलझ रहे हैं पुराने ग़मों से रूह के तार
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
ब-सद ग़ुरूर ब-सद फ़ख़्र-ओ-नाज़-ए-आज़ादी
मचल के खुल गई ज़ुल्फ़-ए-दराज़-ए-आज़ादी
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
'जोश' के पहलू में जब तुम ही मचल सकते नहीं
फिर घटा के दामनों में बर्क़ लहराई तो क्या