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नज़्म
फिर कफ़-आलूदा ज़बानें मदह ओ ज़म की कुमचियाँ
मेरे ज़ेहन ओ गोश के ज़ख़्मों पे बरसाने लगीं
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
गर फ़िक्र-ए-ज़ख्म की तो ख़ता-वार हैं कि हम
क्यूँ महव-ए-मद्ह-ए-खूबी-ए-तेग़-ए-अदा न थे