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नज़्म
ख़ुदा अलीगढ़ के मदरसे को तमाम अमराज़ से शिफ़ा दे
भरे हुए हैं रईस-ज़ादे अमीर-ज़ादे शरीफ़-ज़ादे
अकबर इलाहाबादी
नज़्म
चिड़ियाँ न चहचहाएँ कल सोएँ हम दोपहर तक
बंद है बन का मदरसा कोई हमें जगाए क्यों
राजा मेहदी अली ख़ाँ
नज़्म
ढूँढता हूँ तीसरे के दाख़िले को मदरसा
जा के चौथे ने जो हम-साए से झगड़ा कर लिया
सय्यद मोहम्मद जाफ़री
नज़्म
तुझ से मिल कर आज मुझ को मदरसा याद आ गया
फिर वो तिफ़्ली का मुरक़्क़ा दिल मिरा तड़पा गया
अली मंज़ूर हैदराबादी
नज़्म
पूछता 'फ़ारूक़' शैख़-ए-मदरसा मिलता अगर
बंद क्या हर साहब-ए-दस्तार के होते हैं कान
शमीम फ़ारूक़ बांस पारी
नज़्म
इन किताबों ने बड़ा ज़ुल्म किया है मुझ पर
इन में इक रम्ज़ है जिस रम्ज़ का मारा हुआ ज़ेहन
जौन एलिया
नज़्म
हर नस्ल इक फ़स्ल है धरती की आज उगती है कल कटती है
जीवन वो महँगी मदिरा है जो क़तरा क़तरा बटती है
साहिर लुधियानवी
नज़्म
ग़ैर की बस्ती है कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ