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नज़्म
महाज़-ए-जंग से हरकारा तार लाया है
कि जिस का ज़िक्र तुम्हें ज़िंदगी से प्यारा था
साहिर लुधियानवी
नज़्म
बहुत दिन से वतन में इक महाज़-ए-जंग क़ाएम है
कहीं है धर्म को ख़तरा कहीं ईमान को ख़तरा
अहमक़ फफूँदवी
नज़्म
लेकिन उस का बस यही अंजाम होना है
भुला देने की क़ुव्वत से महाज़-आराई में उस को सदा नाकाम होना है
अमीर इमाम
नज़्म
लेकिन चाँद की तरह माथे पर सजाना नहीं चाहता
क्यों कि अख़्तर-शुमारी से महज़ रात काटी जा सकती है