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नज़्म
साहिर लुधियानवी
नज़्म
क़वानीन-ए-अख़्लाक़ के सारे बंधन शिकस्ता नज़र आ रहे हैं
हसीन और ममनूअ झुरमुट मिरे दिल को फुसला रहे हैं
मीराजी
नज़्म
जिन को ममनूआ ज़मीनों की हिकायात कहा जाता है
तीरगी पर जिसे लिक्खी हुई वो रात कहा जाता है
बुशरा एजाज़
नज़्म
और अम्न के गहवारे का नाम दिया था
जहाँ हमारी आज़माइश के लिए शजर-ए-मम्नूआ के साथ साथ
मोहम्मद हनीफ़ रामे
नज़्म
दरमियाँ था जो हर्फ़-ए-शीरीं का क़िस्सा
वो दर्द-आश्ना लम्हा, वो ममता से लबरेज़ रिश्ता