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नज़्म
चमकते हुए सब बुतों को मिटा दो
कि अब लौह-ए-दिल से हर इक नक़्श हर्फ़-ए-ग़लत की तरह मिट चुका है
फ़ख़्र-ए-आलम नोमानी
नज़्म
सुना है उस के निज़ाम-ए-मुल्की पे सब हैं नाज़ाँ
उसे ही बख़्शेंगे फिर से वो मंसब-ए-हज़ारी
शहनाज़ नबी
नज़्म
तिरी शान कौन घटा सके उसे ख़ुद ख़ुदा ने बढ़ा दिया
कि तुझे बक़ा-ए-दवाम दी तुझे मंसब-ए-शोहदा दिया
इक़बाल सुहैल
नज़्म
ज़िक्र-ए-अहल-ए-हर्फ़ है जिस में लिखी वो भी किताब
उस में समझाया 'अनीस'-ओ-'मीर'-ओ-'ग़ालिब' का मक़ाम
प्रेम लाल शिफ़ा देहलवी
नज़्म
यहीं की थी मोहब्बत के सबक़ की इब्तिदा मैं ने
यहीं की जुरअत-ए-इज़हार-ए-हर्फ़-ए-मुद्दआ मैं ने