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नज़्म
मरज़ कहते हैं सब इस को ये है लेकिन मरज़ ऐसा
छुपा जिस में इलाज-ए-गर्दिश-ए-चर्ख़-ए-कुहन भी है
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
न पागल हूँ न मजनूँ हूँ न है कोई मरज़ मुझ को
अमल पैरा हूँ मैं जिस पर पुराना इक मक़ूला है
सय्यद हशमत सुहैल
नज़्म
तुम ने देखा कोई उस का पूछने वाला नहीं
था मरज़ में मुब्तला वो क़ैद-ए-निकहत का असीर