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नज़्म
और ये सफ़्फ़ाक मसीहा मिरे क़ब्ज़े में नहीं
इस जहाँ के किसी ज़ी-रूह के क़ब्ज़े में नहीं
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
मसीहा अब न आएँगे यही नश्तर रग-ए-जाँ में
ख़लिश बनता रहेगा मेरी साँसों में निहाँ है ये