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नज़्म
अब भी दिलकश है तिरा हुस्न मगर क्या कीजे
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
पहलू-ए-शाह में ये दुख़्तर-ए-जम्हूर की क़ब्र
कितने गुम-गश्ता फ़सानों का पता देती है
साहिर लुधियानवी
नज़्म
चलो कि चल के चराग़ाँ करें दयार-ए-हबीब
हैं इंतिज़ार में अगली मोहब्बतों के मज़ार
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
लहद में सो रही है आज बे-शक मुश्त-ए-ख़ाक उस की
मगर गर्म-ए-अमल है जागती है जान-ए-पाक उस की