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नज़्म
दिन-भर कॉफ़ी-हाउस में बैठे कुछ दुबले-पतले नक़्क़ाद
बहस यही करते रहते हैं सुस्त अदब की है रफ़्तार
हबीब जालिब
नज़्म
छुपाऊँ क्यों न दिल में ख़ातम-ए-गौहर निगार उस की
यही ले दे के मेरे पास है इक यादगार उस की
नय्यर वास्ती
नज़्म
छुपाऊँ क्यूँ न दिल में ख़ातिम-ए-गौहर-निगार उस की
यही ले दे के मेरे पास है इक यादगार उस की
अख़्तर शीरानी
नज़्म
ये वो दिल्ली है कि दिल से जिस के दीवाने हैं हम
ये वो शम-ए-ज़िंदगी है जिस के परवाने हैं हम