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नज़्म
कभी वो चाँदनी में अपना यूँ ही घूमते रहना
कभी वो चाय की मेज़ों पे घंटों बैठना सब का
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
नज़्म
नुशूर वाहिदी
नज़्म
ज़ीशान साहिल
नज़्म
कुर्सियों मेज़ों से बे-मा'नी मुलाक़ातों में
सैंकड़ों बार की अगली हुई दोहराई हुई बातों में
वहीद अख़्तर
नज़्म
जहाँ लकड़ी की मेज़ों और नंगी कुर्सियों में
शह-ए-बलूती गर्दनों का ख़म नज़र आए
मोहम्मद अनवर ख़ालिद
नज़्म
मेज़ों के शीशों पर बिखरे ख़ाली जाम के गीले हल्क़े
सिगरेटों के धुएँ के छल्ले दीवारों पर टूट चले हैं
राशिद आज़र
नज़्म
साहिर लुधियानवी
नज़्म
सहर-दम झुटपुटे के वक़्त रातों के अँधेरे में
कभी मेलों में नाटक-टोलियों में उन के डेरे में
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
मेलों ठेलों बाजों गांजों बारातों की धूमें थीं
आज कोई देखे तो समझे, ये तो सदा बयाबाँ था
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
मेलों के वास्ते जो तलब हो तो ख़ूब दें
क़ौमी जो कोई काम हो तो नाम भी न लें