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नज़्म
ये क्या मुमकिन नहीं तू आ के ख़ुद अब इस का दरमाँ कर
फ़ज़ा-ए-दहर में कुछ बरहमी महसूस होती है
कँवल एम ए
नज़्म
सियाह ज़ुल्फ़ कि बरसात की हो जैसे घटा
मिज़ाज-ए-सुब्ह-ए-दरख़्शाँ तिरी जबीं की ज़िया
सरताज आलम आबिदी
नज़्म
क़ल्ब पर जिस के नुमायाँ नूर ओ ज़ुल्मत का निज़ाम
मुन्कशिफ़ जिस की फ़रासत पर मिज़ाज-ए-सुब्ह-ओ-शाम