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नज़्म
एक दिन इक मोर से कहने लगी ये मोरनी
ख़ुश-सदा है ख़ुश-अदा है ख़ुश-क़दम ख़ुश-रंग है
बासिर सुल्तान काज़मी
नज़्म
झिलमिलाते क़ुमक़ुमों की राह में ज़ंजीर सी
रात के हाथों में दिन की मोहनी तस्वीर सी
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
एक ठंडी ओस में लिपटी नज़र की रौशनी है
और लबों पर गुज़रे वक़्तों की पुरानी चाशनी है
मोनी गोपाल तपिश
नज़्म
टूटी फूटी मोरी में इक मच्छर साहब रहते हैं
शायद वो घर में भी अपने मच्छर ही कहलाते हैं