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नज़्म
इस मामूल से हट कर दुनिया और अमल क्या कर सकती है
हैरत ही उकता जाए तो कोई मुअम्मा हल क्या होगा
सय्यद मुबारक शाह
नज़्म
इस क़बीले का ये कहना था कि शाइ'र का कलाम
लाज़िमन हो इक मुअ'म्मा क़ैद-ए-मा'नी से बरी
रज़ा नक़वी वाही
नज़्म
क्लीनर से यही कहता है शोफ़र हो के बेचारा
''कि कस नकशूद-ओ-नकशायद ब-हिकमत ईं मुअम्मा रा''
सय्यद मोहम्मद जाफ़री
नज़्म
क्या करूँ क्या न करूँ कोई मुदावा भी नहीं
कुछ समझ में नहीं आता ये मुअ'म्मा क्या है
बनो ताहिरा सईद
नज़्म
घुलता जाता है सहर के वक़्त क़ुर्स-ए-आफ़्ताब
बे-सबाती का मुअ'म्मा हो रहा है बे-नक़ाब