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नज़्म
है अहल-ए-दिल के लिए अब ये नज़्म-ए-बस्त-ओ-कुशाद
कि संग-ओ-ख़िश्त मुक़य्यद हैं और सग आज़ाद
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
कुएँ में तू ने यूसुफ़ को जो देखा भी तो क्या देखा
अरे ग़ाफ़िल जो मुतलक़ था मुक़य्यद कर दिया तू ने
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
सामान जहाँ तक होता है उस इशरत के मतलूबों का
वो सब सामान मुहय्या हो और बाग़ खिला हो ख़्वाबों का
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
क्या क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें
और जिन को अब मुहय्या हुस्नों की ढेरियाँ हैं
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
मैं सारे ज़माने से यकसर जुदा हूँ
मुझे ज़ेब देता है मैं अपनी दीवार में इस तरह से मुक़य्यद रहूँ
सोहैब मुग़ीरा सिद्दीक़ी
नज़्म
सब ऐश मुहय्या हो आ कर जिस जिस अरमान की बारी हो
जब सब अरमान निकलता हो तब देख बहारें जाड़े की
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
तारीख़ में क़ौमों की उभरे कैसे कैसे मुम्ताज़ बशर
कुछ मुल्क के तख़्त-नशीं कुछ तख़्त-फ़लक के ताज-बसर
आनंद नारायण मुल्ला
नज़्म
मुक़य्यद अब नहीं 'इक़बाल' अपने जिस्म-ए-फ़ानी में
नहीं वो बंद हाइल आज दरिया की रवानी में
हफ़ीज़ जालंधरी
नज़्म
जो सदा हुस्न की अक़्लीम में मुम्ताज़ रहे
दिल के आईने में उतरी है वो तस्वीर अब के
साहिर लुधियानवी
नज़्म
उन को रहगुज़र पर एक सी तरतीब से अब भी सजाते हैं
सबीलें सुर्ख़ कपड़ों से मुज़य्यन जगमगाती हैं
इशरत आफ़रीं
नज़्म
लिया आग़ोश में फूलों की सीजों ने अमीरी को
मुहय्या ख़ाक ही ने कर दिए आसन फ़क़ीरी को
हफ़ीज़ जालंधरी
नज़्म
आप मैदान-ए-सुख़न में भी थे सब से मुम्ताज़
साथ ही इक बड़े नस्सार थे मिर्ज़ा 'ग़ालिब'