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नज़्म
और तब हब्स के क़हरमाँ मौसमों के अज़ाब इन ज़मीनों पे भेजे गए
और मुनादी करा दी गई
इफ़्तिख़ार आरिफ़
नज़्म
तुलू-ए-सुब्ह-ए-फ़र्दा की मुनादी भी ज़रा सुन लो
ये एटम जब फटेगा तो क़यामत चार-सू होगी
कैलाश माहिर
नज़्म
हाँ मुनासिब है ये ज़ंजीर-ए-हवा भी तोड़ दूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
तुम अपनी माम के बेहद मुरादी मिन्नतों वाले
मिरे कुछ भी नहीं कुछ भी नहीं कुछ भी नहीं बाले
जौन एलिया
नज़्म
क्या दाख मुनक़्का सोंठ मिरच क्या केसर लौंग सुपारी है
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
बज़्म-ए-मातम तो नहीं बज़्म-ए-सुख़न है 'हाली'
याँ मुनासिब नहीं रो रो के रुलाना हरगिज़