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नज़्म
लबों की मद्धम तवील सरगोशियों में साँसें उलझ गई थीं
मुँदे हुए साहिलों पे जैसे कहीं बहुत दूर
गुलज़ार
नज़्म
गगन की जगमगाहट पड़ गई है आज मद्धम क्यूँ
मुंडेरों और छज्जों पर उतर आए हैं तारे क्या
नज़ीर बनारसी
नज़्म
मुसलसल ता'ज़ियों की पन्नियों से और मस्जिद की मुंडेरों से
मुसलसल हैदर-ओ-फ़ारूक़ की रंगीं सबीलों से
इशरत आफ़रीं
नज़्म
इमकानों के हर कूचे में उम्मीदों की हर मुंडेर पर
मुस्तक़बिल के हर रस्ते में ख़्वाब की जोत जगाए रखना
इफ़्तिख़ार आरिफ़
नज़्म
मैं भी अब तक जाग रहा हूँ आँखें मूँदे सोच रहा हूँ
नीचे जाना कैसा होगा बाहर कितनी सर्दी होगी