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नज़्म
कलमा भी पढ़ते जाते हैं रोते हैं ज़ार-ज़ार
सब आदमी ही करते हैं मुर्दे के कारोबार
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
बिन मुर्दे घर में शोर मचाती है मुफ़्लिसी
लाज़िम है गर ग़मी में कोई शोर-ग़ुल मचाए
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
पहुँचाए ख़्वान फिरते हैं नौकर कई पड़े
ज़िंदे भी राह तकते हैं मुर्दे भी हैं खड़े
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
तुम क्यूँ उखाड़ते हो वो मुर्दे जो हैं गड़े
देखे नहीं हैं तुम ने जो चिकने थे वो घड़े
सय्यद मोहम्मद जाफ़री
नज़्म
मैं भी अब तक जाग रहा हूँ आँखें मूँदे सोच रहा हूँ
नीचे जाना कैसा होगा बाहर कितनी सर्दी होगी
आसिम बद्र
नज़्म
अली अकबर नातिक़
नज़्म
कहीं ये ख़ू-ए-ख़ूँ-रेज़ी अक़ीदों को बदलती है
कहीं मुर्दे जिलाने से भी साहब कुछ नहीं होता